राज एक्सप्रेस, भोपाल। बीते शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर की यात्रा का चीन ने विरोध जताया है (Narendra Modi Arunachal Tour)। चीन ने कहा है कि भारतीय नेतृत्व को ऐसा कोई भी कदम उठाने से बचना चाहिए, जिससे सीमा विवाद जटिल हो जाए। चीन का यह कदम भारत पर सिर्फ दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा है। भारत को चीन की परवाह किए बिना अपना काम और राज्यों को उन्नत करने का दायित्व निभाते रहना चाहिए।
बीते शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर के दौरे पर थे। वहां मोदी ने अरुणाचल को देश की सुरक्षा का द्वार, अस्था का प्रतीक और उगते सूरज की भूमि बताते हुए कहा कि यह प्रदेश हमारे संकल्प को मजबूती देता है। लोग यहां एक-दूसरे का ‘जय हिंद’ कहकर अभिवादन करते हैं। मैं उनके इस देशप्रेम को सलाम करता हूं। इस पर चीन की त्यौरियां चढ़ गईं। उसने विरोध करते हुए कहा है कि भारतीय नेतृत्व को ऐसा कोई भी कदम उठाने से बचना चाहिए, जिससे सीमा विवाद जटिल हो जाए। दूसरी तरफ भारत ने चीन की आपत्ति पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए अरुणाचल को देश का अभिन्न और अभिभाज्य हिस्सा जताया है। चीन ने इसी तरह 2017 में भारत में तैनात अमेरिका के राजदूत रिचर्ड वर्मा के अरुणाचल प्रदेश जाने पर न केवल आपत्ति जताई थी, बल्कि बुरे नतीजे भुगतने की धमकी भी दी थी। हालांकि, भारतीय संप्रभुता के परिप्रेक्ष्य में इन आपत्तियों का कोई औचित्य नहीं है। चीन ने यह ऐतराज इसलिए दर्ज कराया है, जिससे दुनिया को यह अहसास होता रहे कि अरुणाचल विवादित क्षेत्र है। इससे पहले भी मोदी जब अरुणाचल गए थे, तब भी चीन ने आपत्ति जताई थी।
चीन की ओर से भारत की चुनौती लगातार बढ़ रही है। दरअसल चीन भारत के बरक्श बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है, पंचशील का राग अलापता है और व्यापारी तक बन जाता है। किंतु पंचशील समझौते के सिद्धांतों का उल्लंघन का आदी वह बशर्मी की हद पार कर गया है। कितनी भी नरमी से भारत पेश आए चीन का मुखौटा दुश्मनी का ही दिखाई देता है, जिसके चलते वह पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोक देता है। अरुणाचल को अपने नक्शे में शामिल कर लेता है और अपनी वेबसाइट पर भारतीय नक्शे से अरुणाचल को गायब कर देता है। साथ ही उसकी यह मंशा भी रहती है कि भारत विकसित न हो, उसके दक्षिण एशियाई देशों से द्विपक्षीय संबंध मजबूत न हों और न ही चीन की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत हो। इस दृष्टि से वह पीओके, लद्दाख, उत्तराखंड और अरुणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है।
दरअसल, चीन का लोकतंत्रिक स्वांग उस सिंह की तरह है जो गाय का मुखौटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्राणियों का शिकार करता है। इसका नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूवरेत्तर सीमा में अक्साई चिन की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। बावजूद अरुणाचल की 90 हजार वर्ग किमी पर दावा भी जताता है। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आराध्य स्थल के नाम से हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में दर्ज है, सभी ग्रंथों में इसे अखंड भारत का हिस्सा बताया गया है। लेकिन भगवान भोले भंडारी अब चीन के कब्जे में हैं। यही नहीं गूगल अर्थ से होड़ बररते हुए चीन ने एक ऑनलाइन मानचित्र सेवा शुरू की है, जिसमें भारतीय भू-भाग अरुणाचल और अक्साई चिन को चीन ने अपने हिस्से में दर्शाया है। विश्व मानचित्र खंड में इसे चीनी भाषा मंदारिन में दर्शाते हुए अरुाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से ही बना हुआ है।
यहां गौरतलब है कि साम्यवादी देशों की हड़प नीति के चलते ही छोटा सा देश चेकोस्लोवाकिया बर्बाद हुआ। चीनी दखल के चलते बर्बादी की इसी राह पर नेपाल है। पाकिस्तान में भरपूर निवेश करके चीन ने मजबूत पैठ बना ली है। बांग्लादेश और श्रीलंका को भी वह बरगलाने में लगा है। ऐसा करके वह सार्क देशों का सदस्य बनने की फिराक में है। इन कूटनीतिक चालों से इस क्षेत्र के छोटे-बड़े देशों में उसका निवेश और व्यापार तो बढ़ेगा ही सामरिक भूमिका भी बढ़ेगी। यह रणनीति वह भारत से मुकाबले के लिए रच रहा है। चीन की यह दोगली कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन जो आक्रामकता अब दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए भी चिंता का कारण बना हुआ है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की रुचि नहीं हैं। चीन भारत से इसलिए नाराज है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बतियों को भारत में शरण दी थी। चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई की खिलाफत करे।
दरअसल भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल व असमंजस की नीति अपनाई है। जब हमने तिब्बतियों को शरणर्थियों के रूप में जगह दे ही दी थी, तो तिब्बत को स्वंतत्र देश मानते हुए अंतराष्ट्रीय मंच पर समर्थन की घोषणा करने की जरूरत भी थी। डॉ राममनोहर लोहिया ने संसद में इस आशय का बयान भी दिया था, लेकिन ढुलमुल नीति के कारण नेहरू ऐसा नहीं कर पाए। इसके दुष्परिणाम भारत आज भी झेल रहा है। चीन कूटनीति के स्तर पर भारत को हर जगह मात दे रहा है। पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया था। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेश किया है। झ्रवह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाक का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से 3750 मीटर की ऊंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामरिक नजरिए से महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोशुओ काउंटी भारत के अरुणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां सड़क मार्ग नहीं था। अब चीन इस मार्ग की सुरक्षा के बहाने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को सिविल इंजीनियर के रूप में तैनात करने की कोशिश में है।
मसलन वह गिलगित और बलूचिस्तान में सैनिक मौजदूगी के जरिए भारत पर एक ओर दवाब की रणनीति को अंजाम देने के प्रयास में है। कूटनीतिक चाल चलते हुए नरेंद्र मोदी ने जब से बलूचिस्तान का समर्थन किया है, तबसे बलूच के विद्रोही लिबरेशन आर्मी और चीन द्वारा पाक में बनाए जा रहे आर्थिक गलियारे का मुखर विरोध शुरू हो गया है। भूटान-भारत की सीमा पर डोकलाम विवाद भी कायम है। यह ठीक है कि भारत और चीन की सभ्यता 5000 साल से ज्यादा पुरानी है। भारत ने संस्कृति के स्तर पर चीन को हमेशा नई सीख दी है। अब से करीब 2000 साल पहले बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था। वहां पहले से कनफ्यूशिस धर्म था। दोनों को मिलाकर नवकनफ्यूशनवाद बना। जिसे चीन ने अंगीकार किया। लेकिन चीन भारत के प्रति आंखे तरेरे है। इसलिए भारत को भी आंख दिखाने के साथ कूटनीतिक परिवर्तन की जरूरत है। भारत को उन देशों से मधुर एवं सामरिक संबंध बनाने की जरूरत है, जिनसे चीन के तनावपूर्ण संबंध हैं। ऐसे देशों में जापान, वियतमान व म्यांमार हैं। चीन की काट के लिए भारत को तिब्बत, मंगोलिया व शिक्यांग के अल्पसंख्यकों को नत्थी वीजा देने की जरूरत है। ईंट का जवाब पत्थर से देना ही होगा।
प्रमोद भार्गव (वरिष्ठ पत्रकार)